कहानी एक आम मधेशी की
साल २००७ की बात है हरेक वर्ष की तरह इस वर्ष भी हमारे विद्यालय ने शैक्षिक भ्रमणका आयोजन किया था । हमारे लिये शैक्षिक भ्रमण का अर्थ शिक्षा से भी ज्यादा ,यादें संग्रह करना होता था। हो भी क्यों ना ! साल भर तराई ( बीरगंज ) की गरम हवा झेलने के बाद , शहर से दूर ,पहाड़ की शीतलता की अनुभूति करना अपने आप में आनन्दायक है। छोटे से क्षेत्रफल में भौगोलिक विविध्दता नेपाल को अनोखा बनती है , हिमाल , पहाड़ और तराई का अद्भुत संगम नेपाल को स्वर्ग के समान बनता है ।
सवेरे के ५ बजे हम सब विद्यालय प्रांगण में इकट्ठा हुये , मन उत्सुक्ता से भरा हुआ था। मास्टर जी ने हमे सफर के दौरान अनुशासन बनाए रखने को कहा और हम चल पड़े , मंजिल थी बीरगंज से करीब ५६ किलोमीटर दूर हेटौंडा स्थित शहीद स्मारक । गाते गुनगुनाते , चुरिया माई के दर्शन करते हुये हम शहिद स्मारक पहुंचे। कुछ देर अध्यापको के साथ टहलने के बाद , मैं और मेरे कुछ साथी फोटो सेशन के लिये रुके। इतने सुन्दर दृश्यों को भला कौन कैद करने से चुके। फोटो सेशन के दौरान एक घटना हुई जिसने मुझे कुछ सोच्ने पे मजबूर कर दिया।
फोटो सेशन के दौरान, अनजाने में मेरे एक मित्र ने एक कुर्सी में रखी हुयी कैप (टोपी) को गिरा दिया, हम कुछ समझ पाते उससे पहले क़रीब हमारे ही उम्र का एक युवक जोर से चिल्लाया। संभवतः ये कैप उसकी ही थी , ये समझते हुये मेरे मित्र ने बड़ी ही विनम्रता के साथ माफ़ी मांगी और कहा ,
“सॉरी भाई “,
ये सुनने के बाद युवक और भी आगबबूला हो उठा और बोला ,
“भाई कस्लाई भनीस , म तेरो भाई होइन ,बिहारी (*****)” ।
ये कहते हुये वो गुस्से में निकल गया , सायद उसने माफ़ी तो दे दी पर भाई शब्द उसे रास न आया। सायद मेरे मित्र का रंग और चेहरा उसे पसंद न आया। इतने वर्षो में मैंने ऐसा कभी भी महसूस नहीं किया था। कुछ अच्छी और कुछ बुरी यादो के साथ हम बीरगंज लौट आये।
कुछ लोगो के मन में ये प्रश्न उबज रहे होंगे ,ये एक छोटी सी घटना प्रतीत होती है , क्यों मैं ऐसी फिजूल की बातो पे ध्यान दे रहा हु। किसी भी व्यक्ति का दुर्व्यवहार करना उसकी निजी मानसिकता को दर्शाता है तो फिर मैं क्यों पुरे समाज को दोष दे रहा हु। ये निजी मानसिकता नहीं है वल्कि सदियों से चली आ रही खस मानसिकता है। हममें से हर कोई कही ना कही इस मानसिकता का शिकार हुआ है। समाज का पढ़ा लिखा तबका भी इसी मानसिकता से पीड़ित है , भ्रम है तो आप किसी भी न्यूज़ चैनल के फेसबुक पेज पे नजर घुमा सकते है।
हो सकता की ये महज एक घटना ही हो जिसे गंभीरता पूर्वक नहीं लेना चाहिये , लेक़ीन सच तो यह है की आज भी हमे दूसरे दर्जे के नागरीक के रूप में देखा जाता है।
उस समय तक मुझे “मधेशी” शब्द का ज्ञान तक नहीं था। मेरे पूर्वजो ने नेपाल को अपना कर्मभूमि बनाया, मैंने भी अपने आप को हमेशा से ही नेपाली माना। पर सिर्फ हमारे मान लेने से क्या होता है , प्रथम मधेश आन्दोलन से पहले हम में से कई लोग अनागरिक थे। ये भेद सिर्फ सामर्थ्य और असामर्थ्य का नहीं है ये भेद रंग और रूप का है।
देश के जाने माने व्यापारी श्री शेखर गोल्छा के कहानी भी पढें कान्तिपुरमे “मैले नेपाली हुन अरु के गरौं ? जब वो इसका शिकार हो सकते है, तो हम आप कुछ नहीं है।
कब तक झूठी राष्ट्रियता का ढिंढोरा पीटते रहेंगे ,कब तक देश की एक बड़े तबके का शोषण करते रहेंगे , सवाल अनेक है पर जवाब एक भी नहीं। देश का विकास चाहने वाले लोगो को मधेशीयों का सर कुचल के नहीं बल्की मधेशीयों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलना होगा। सरकार और संसद मधेशीयों के मनोसाय को समझने में बिफल हुआ है पर अब भी समय है मधेश की आग को बुझाइए नहीं तो हम सब जल जाएंगे।
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” मानने वालो के बीच भाईचारा होना जरुरी है ,नहीं तो देश स्वर्ग नहीं नर्ग बनेगा।
जय देश !! जय मधेश !!
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Originally from Birgunj, Vikram Jain is a computer science undergraduate at WBUT, Calcutta (India). He is an entrepreneurship enthusiast and is currently trying to amalgamate education with technology. He believes that Internet can play an important role in bringing positive societal changes. His goal is to develop a startup ecosystem in Nepal (particularly in Terai) and youth empowerment. His twitter handle is @likevikram.